जनेऊ को संस्कृत में यज्ञोपवीत कहा जाता है। यह तीन धागों वाला सूत से बना पवित्र धागा है, जिसे व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर तथा दाहिनी भुजा के नीचे पहनता है। अर्थात इसे गले में इस तरह डाला जाता है कि वह बाएं कंधे के ऊपर रहे।

जनेऊ के तीन सूत्र-त्रिमूर्ति ब्रह्मा-विष्णु-महेश, देवऋण-पितृऋण-ऋषिऋण, सत्व-रज-तम के प्रतीक होते हैं। ये तीन सूत्र गायत्री मंत्र के तीन चरणों के साथ तीन आश्रमों के प्रतीक भी हैं। जनेऊ के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। कुल तारों की संख्‍या नौ होती है। इनमें एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वार मिलाकर कुल नौ होते हैं। इनका अर्थ है-हम मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देखें और कानों से अच्छा सुनें। जनेऊ में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष की प्रतीक हैं। ये पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों के भी प्रतीक हैं।

जनेऊ की लंबाई

जनेऊ की लंबाई 96 अंगुल होती है, इसलिए जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए। 32 विद्याएं-चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर होती है। 64 कलाओं में वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि आती हैं।

जनेऊ धारण के समय बालक के हाथ में एक दंड होता है। इस दौरान वह बिना सिला एक ही वस्त्र पहनता है और उसके गले में पीले रंग का दुपट्टा होता है। मुंडन के बाद शिखा रखी जाती है। पैर में खड़ाऊ होती है और मेखला , कोपीन, दंड। कमर में बांधने योग्य नाड़े जैसे सूत्र को मेखला कहते हैं। मेखला को मुंज और करधनी भी कहते हैं। कपड़े की सिली हुई सूत की डोरी, कलावे के लंबे टुकड़े से मेखला बनती है। कोपीन लगभग 4 इंच चौड़ी डेढ़ फीट लंबी लंगोटी होती है। इसे मेखला के साथ टांक कर भी रखा जा सकता है। दंड रूप में लाठी या ब्रह्म दंड जैसा रोल भी रखा जा सकता है। यज्ञोपवीत को पीले रंग में रंगकर रखा जाता है। बिना सिले वस्त्र पहनकर, हाथ में एक दंड लेकर, कोपीन और पीला दुपट्टा पहनकर विधि-विधान से जनेऊ धारण की जाती है। जनेऊ धारण करने के लिए एक यज्ञ होता है, जिसमें जनेऊ धारक अपने संपूर्ण परिवार के साथ भाग लेता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किए गए जनेऊ को विशेष विधि से ग्रंथित कर तैयार कर गुरु दीक्षा के बाद ही धारण किया जाता है। अपवित्र होने पर इसे बदल लिया जाता है।

गायत्री मंत्र से शुरू होता है यह संस्कार:

यज्ञोपवीत संस्कार गायत्री मंत्र से शुरू होता है। गायत्री-उपवीत का सम्मिलन ही द्विजत्व है।

गायत्रीमेंतीनचरणहैं। ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ प्रथम चरण, ‘भर्गोदेवस्य धीमहि’ द्वितीय चरण, ‘धियो यो न: प्रचोदयात् ’ तृतीय चरण है।

गायत्री महामंत्र की महिमा:  यज्ञोपवीत, जिसमें 9 शब्द, तीन चरण, सहित तीन व्याहृतियां समाहित हैं।

इस मंत्र से यज्ञोपवीत संस्कार:

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् । आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।

यज्ञोपवित संस्कार प्रारंभ करने के पूर्व यज्ञोपवीती बटुक का मुंडन करवाया जाता है। संस्कार के मुहूर्त के दिन बटुक को स्नान करवाकर उसके सिर और शरीर पर चंदन-केसर का लेप करते हैं और जनेऊ पहनाकर ब्रह्मचारी बनाते हैं। फिर हवन करते हैं। विधिपूर्वक गणेशादि देवताओं का पूजन, यज्ञवेदी एवं बालक को अधोवस्त्र के साथ माला पहनाकर बैठाया जाता है। इसके बाद दस बार गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित कर देवताओं के आह्वान के साथ उससे शास्त्र शिक्षा और व्रतों के पालन का वचन लिया जाता है। गुरु, मंत्र सुनाकर कहता है- आज से तू ब्राह्मण हुआ अर्थात ब्रह्म (सिर्फ ईश्वर को मानने वाला) हुआ। इसके बाद मृगचर्म ओढाकर मुंज (मेखला) का कंदोरा बांधते हैं और एक दंड हाथ में देते हैं। तत्पश्चात्‌ वह बालक उपस्थित लोगों से भीक्षा मांगता है।

जनेऊ धारण करने की आयु

जिस दिन गर्भ धारण किया हो उसके आठवें वर्ष में बालक का उपनयन/ यज्ञोपवीत संस्कार किया जाना चाहिए। जनेऊ पहनने के बाद ही विद्यारंभ होना चाहिए, लेकिन आजकल गुरु परंपरा समाप्त होने के बाद अधिकतर लोग जनेऊ नहीं पहनते,  ऐसे में उन्हें विवाह के पूर्व जनेऊ पहनाई जाती है। लेकिन वह रस्म अदायिगी से ज्यादा कुछ नहीं, क्योंकि वे जनेऊ का महत्व नहीं समझते हैं। किसी भी धार्मिक कार्य, पूजा-पाठ, यज्ञ आदि करने के पूर्व जनेऊ धारण करना जरूरी है। हिंदू धर्म में विवाह तब तक पूर्ण नहीं होता जब तक कि जनेऊ धारण नहीं किया जाए।

यज्ञोपवीत धारण के आचरण नियम

1-मल-मूत्र विसर्जन के दौरान जनेऊ को दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करने के बाद ही उतारना चाहिए। इसका मूल भाव यह है कि जनेऊ कमर से ऊंचा हो जाए और अपवित्र न हो। यह बेहद जरूरी है।

2-अगर जनेऊ का कोई तार टूट जाए या 6 माह से अधिक समय हो जाए, तो बदल देना चाहिए। खंडित जनेऊ  शरीर पर नहीं रखते। धागे कच्चे और गंदे होने लगें, तो बदल देना उचित है।

3-घर में जन्म-मरण के सूतक के बाद इसे बदल देने की परम्परा है।

4-जनेऊ शरीर से बाहर नहीं निकाला जाता। साफ करने के लिए उसे कंठ में पहने रहकर ही घुमाकर धो लेते हैं। भूल से उतर जाए, तो प्रायश्चित की एक माला जप करने या बदल लेने का नियम है।

5-बालक जब इन नियमों के पालन करने योग्य हो जाएं, तभी उनका यज्ञोपवीत संस्कार करना चाहिए।

जनेऊ का वैज्ञानिक महत्व

1-बार-बार बुरे स्वप्न आने की स्थिति में जनेऊ धारण करने से ऐसे स्वप्न नहीं आते।

2- हृदय के पास से गुजरने से यह हृदय रोग की संभावना को कम करता है, क्योंकि इससे रक्त संचार सुचारू रूप से संचालित होने लगता है।

3-जनेऊ पहनने वाला व्यक्ति सफाई नियमों में बंधा होता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जीवाणुओं के रोगों से बचाती है।

4-जनेऊ को दाहिने कान पर धारण करने से कान की वह नस दबती है, जिससे मस्तिष्क की कोई सोई हुई तंद्रा कार्य करती है।

5-दाहिने कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है।

6-कान में जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जागरण होता है।

7-कान पर जनेऊ लपेटने से पेट संबंधी रोग एवं रक्तचाप की समस्या से भी बचाव होता है।

8-जनेऊ धारण करने से विद्युत प्रवाह रेखा नियंत्रित रहती है, जिससे काम-क्रोध पर नियंत्रण रखने में आसानी होती है।

9-जनेऊ से पवित्रता का अहसास होता है। यह मन को बुरे कार्यों से बचाती है।

10-जनेऊ से कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय के रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते।