कभी-कभी दुनिया में ऐसी दिव्य आत्माएं जन्म लेती हैं, जो लौट जाने के बाद भी हमारे भीतर ठहरी रहती हैं। उन्हें पाकर समय भी गर्व अनुभव करता है, मनुष्य और मनुष्यता निहाल हो जाते हैं। 93 वर्ष की सुदीर्घ आयु में प्रभु श्री राम के पावन चरणों में प्रस्थित दिवंगत दयाशंकर जी व्यास ऐसे ही व्यक्तित्व थे। व्यक्ति के लिए सबसे मुश्किल है मनुष्य होकर जीना, क्योंकि मनुष्य होने में अहंकार, स्वार्थपरकता और अपने-पराए की भेद दृष्टि से मुक्ति अनिवार्य है। ये ही मनुष्य जीवन में अजातशत्रु की भूमिका के प्रमुख तत्व हैं। स्व. दयाशंकर जी व्यास के संपर्क में जो भी आया, उसने उनमें यह अजातशत्रुत्व अवश्य ही देखा और अनुभव किया। छल-छद्म की दुनिया में इस तरह जीवन यापन गृहस्थ संत की परिभाषा को चरितार्थ करता है। पूज्य दयाशंकर जी कार्याचरण के कारण सच्चे अर्थों में गृहस्थ संत थे। श्री राम उनके इष्ट थे और सद्गुरु उनके आराध्य। वे जानते थे कि प्रभु श्री राम तक पहुंचने का मार्ग गुरु से होकर जाता है। कबीर की इस साखी में उनकी पूर्ण आस्था थी-

गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाए, 

बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।

इस कोटि की गुरुभक्ति ने,  गीता और रामचरित मानस को उनके लिए पाठ से आगे आचरण का विषय बनाया था। धर्म का अर्थ धारण करने से है।  वे जानते थे कि धारण करना बह्याचरण की और प्रदर्शन की वस्तु नहीं है। धर्म का धारणत्न  मन प्राण की वेदी पर होता है। यही कारण है व्यास जी ने जीवन पर्यन्त कर्तव्यों के अनुपालन में सेवा, सहायता, सद्भाव को आचरण का अनिवार्य अंग माना। शासकीय सेवा में भी वे निर्भीक, निष्पक्ष और सहृदय-उदार अधिकारी के रूप में समादृत रहे। जिस व्यक्ति में स्वार्थपरकता नहीं होती वही निर्भय और दयालु हो सकता है। मध्यप्रदेश के जिस हिस्से में भी वे रहे, वहां एक सत्यनिष्ठ, समर्पित और सहज-सरल, निरहम अधिकारी के रूप में आज भी याद किए जाते हैं। उप आयुक्त सहकारी संस्थाएं पद से सेवानिवृत्ति के बाद भी व्यास जी जीवन पर्यन्त मानव हितैषी कार्यों के प्रति प्रतिबद्ध और समर्पित रहे। स्नेह नगर, इंदौर के वरिष्ठ क्लब के सदस्य, अध्यक्ष के रूप में उनके कार्यों का स्मरण करते हुए, उन्हें अपना मार्गदर्शक और प्रेरक मानते हैं और चाहते हैं कि जो मार्ग उन्होंने प्रशस्त किया उस पर चल कर ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की जा सकती है। स्व.व्यास जी के इस अद्भुत और विचक्षण व्यक्तित्व के निर्माण में, बचपन से युवा काल तक के संघर्ष की भूमिका रही है।  सोना भट्टी में तपकर ही कुंदन बनता है। व्यास जी का व्यक्तित्व उनका आचरण और जीवन शैली इसके प्रमाण रहे हैं।

सामाजिक, शासकीय जीवन के साथ परिवार के प्रति उत्तरदायित्व निर्वहन में स्व.व्यास जी और उनकी सहधर्मिणी स्व.इंदुबाला जी का एकात्म रूप सम्पूर्ण समाज के लिए सदैव प्रेरक रहेगा। व्यास जी के ज्येष्ठ पुत्र श्री प्रणव वाडिया टेक्नो इंजीनियरिंग सर्विसेज लि.मुंबई में विभाग प्रमुख, द्वितीय पुत्र श्री प्रणय सेवानिवृत्त संभागीय बीज प्रमाणीकरण अधिकारी, तृतीय पुत्र डॉ.प्रतीप व्यास और पुत्र वधु डॉ.शरदिनी व्यास अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नेत्र चिकित्सक हैं और सेंटर फॉर साइट, नेत्र संस्थान इंदौर में डायरेक्टर और अतिरिक्त डायरेक्टर पदों पर आसीन हैं। कहना होगा कि अध्यात्म के साथ लौकिक जीवन में भी दायित्व निर्वाह के प्रति दिवंगत द्वय का समर्पण समाज के लिए उदाहरण होने के साथ अनुकरणीय भी है।

श्रद्धेय दयाशंकर जी संसार से तो विदा हो चुके हैं किन्तु उनके सदाचरण की खुशबू अनश्वर है और सदैव अनुभव की जाती रहेगी। जीवन के अंतिम दिनों में उनकी आंखों में लौकिक उद्वेगों के पार, केवल असीम तृप्ति और ईश्वरीय आनंद तरंगायित था। जैसे उन्हें यह भान था कि उनका चैत्य, महाचैत्य में समा रहा रहा है। जिन्होंने भी अंतिम दिनों में व्यास जी का नैकट्य लाभ लिया है, उन्होंने उनकी आंखों में, अनिर्वचनीय शांति का भाव, अवश्य अनुभव किया है।

ऐसे पुण्य पुरुष स्व.काका साहब के श्री चरणों में मुझ सहित मेरे भाई-बहनों और ठाकुर परिवार  सश्रद्ध श्रद्धांजलि और प्रणाम।

-निर्मला ठाकुर

इंदौर